Friday, April 16, 2010

Thursday, January 21, 2010


उनकी मेहरारुएँ

यूनिप्रतियोगिता आयोजित करने के पीछे हिंद-युग्म का उद्देश्य जहाँ पाठकों को अच्छी कविताओं का रसास्वादन कराना होता है, वहीं नयी काव्यप्रतिभाओं का पल्लवन और उन्हे हिंद-युग्म के मंच से जोड़ना भी होता है।

नये कवियों से पाठकों का परिचय कराने की इसी शृंखला में नया नाम जुड़ा है प्रशांत प्रेम का, जिनकी कविता को दिसंबर माह की यूनिप्रतियोगिता में तीसरा स्थान मिला।

२३ जून १९७७ को जन्मे प्रशांत दृश्य-श्रव्य संचार माध्यम मे डिप्लोमा प्राप्त करके फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र से जुड़ गये। प्रशांत अलग-अलग विधाओं के द्वारा अपने विचार व्यक्त करने का प्रयास करते हैं। किंतु कविता इनके दिल की सबसे करीबी विधा है जो मूलतः स्वांतः सुखाय होती है। फ़िलहाल दिल्ली में एक कम्पनी से बतौर सहायक निर्देशक जुड़े प्रशांत अपनी फ़िल्म बनाने के लिये प्रयासरत हैं।

प्रस्तुत पुरस्कृत कविता इन्होंने बिहार की बाढ़ देख कर लौटने के बाद लिखी थी।





पुरस्कृत कविता: उनकी मेहरारुएँ



नहीं

अब नदी में कोई उबाल नहीं,

पटरी से उतर गया है पानी,

ऊँचे हाई-वे पर पनाह लिए लोग

लौटने लगे हैं घरों की तरफ

अपने-अपने बाल-बच्चे, ढोर-डंगर और मेहरारुओं के साथ।



मेहरारुओं को अभी करना है बहुत काम



सबसे पहले तो साफ़ करनी है घरों से कीचड़

परिवार बस सके ठीक से



फिर

साफ़ करना है बथान

ढोर-डंगर बँध सके ठीक-से



फिर

साफ़ करनी है दुआर

मेहमान आये तो बैठ सके ठीक-से



फिर

ठीक करना है चूल्हा-चौका

बर्तन-भांडा

कपड़े-लत्ते

खटिया-बिस्तर

मेंड़-पगडण्डी

खेत-खलिहान

.....

.....

साफ़ करनी है गली, गाँव और चौपाल

और कुआँ।



पानी के उतर जाने के बाद

कहाँ से आयेगा पीने का पानी?

सवाल,

अपने पीछे जो छोड़ गया है

पिछले तीन हज़ार सालों का बाढ़ का पानी

इसका जवाब पता है सिर्फ उनकी मेहरारुओं को।



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पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।

प्रेषक : नियंत्रक । Admin
समय : 10:01 AM

उनकी मेहरारुएँ चेप्पियाँ : Dec_09, prashant prem, प्रतियोगिता की कविताएँ, प्रथम कविता

.. थोड़ी देर से ही सही..!!!

http://kavita.hindyugm.com/2010/01/unki-mehraruyen.html

Wednesday, December 30, 2009

संदेह में उम्मीद

नया वर्ष ए़क पत्थर है-
पानी से घिस चिकना हो गए
उन् ढेर सारे काले, लाल, सफ़ेद पत्थरों में से ए़क-
केक के खाली हो गए डिब्बे में रख
पिछली विदा में जो दिए थे तुमने- सजाने को कमरे में |

नया वर्ष ए़क पत्थर है
जो दिखा-
सड़क किनारे, चाय की टप्पी पे सिगरेट पीते,
दुनिया और मेरे बीच धुआँ सा था जब,
-थूथन उठाये अपनी दोनों आँखों से मुझे घुरता|
उस की पूँछ में ए़क छेद है,
इस ओर की दुनिया से
उस ओर की दुनिया में जाने के लिए ए़क सुरंग की तरह|
-मैं उठा लाया हूँ.

नया वर्ष ए़क पत्थर है-
इस दफा जो फेंक दें
इधर की दुनिया और उधर के दुनिया के बीच की खाई में
हर बार को झुठलाती
आ ही जाए पेंदे से टकराने की आवाज,
या क्या पता कर ही दे आकाश में सुराख
जो उछाल दें तबियत से,
..मुश्किल सिर्फ इतनी सी है दोस्त
की इस मुश्किल वक़्त में
तबियत का होना ए़क संदेह है|

नया वर्ष ए़क पत्थर है
ट्रक के पहिये से छिटक कर
मेरे सर पर आ लगा है
और अब ए़क पत्थर मेरे भीतर भी है
सर पर उग आये गुमड़ में|
इन्हीं दो पत्थरो के बीच रख
पीसना है मुझे- साल भर मसाला
(इस सन्नाटे में लगाने को छौंक)
पीसनी है मुझे- साल भर गेंहू
दर्रनी है मुझे - साल भर दाल
और पूरे साल
वही रोटी - वही दाल

नया वर्ष ए़क पत्थर है
-मील का
जिस पर लिखा है
कहाँ तक चल चुके हम?
कहाँ था हमें जाना?
और ए़क प्रश्न-
अब पहुचेंगे कहाँ हम ?

 नया वर्ष ए़क पत्थर है
-मेरे हाथ में,
जो दिखा-
सड़क किनारे, चाय की टप्पी पे सिगरेट पीते,
दुनिया और मेरे बीच धुआँ सा था जब,

- इस बाज़ार से दूर
जो डाली जा रही हो नीव किसी घर की
उसी में कही रखनी है मुझे |

Friday, December 11, 2009

चारमीनार

दोस्त ! वक़्त ने पत्थरों-सी एक इबारत लिखी है
जहाँ लोग आते है, जाते है, देखते है, चले जाते है
हमारे वजूद पे लिखे हर्फो की तरह
जिनका कोई हमसाया नही
चारमीनार: एक घड़ी है
जिसकी सुइयां थमी हुई है|


हम घड़ी की उन तीन सुइयों की तरह
लटके पड़े है वही
एक निश्चित दूरियों पर
केंद्र में कही जुड़े एक-दुसरे से|

वक़्त का सफ़र रुका सा है,
चलता क्यों नही ...
की बारह बजे एकबार रात के
और दिन आये ना ...

Monday, November 23, 2009

Sunday, November 15, 2009

एक अफगानिस्तानी मित्र के प्रति संवेदना सहित

हजारों टन बमों और
सैकड़ो क्रुज़ मिस्साइले गिरने का मतलब तुम्हे नहीं पता,
तुम्हे नहीं पता- भूख और बेवशी की पीड़ा,
तुम्हे मालुम भी नहीं
सर्दियों में सिर्फ तन ढकने के कपड़ो के बिना
ठिठुर कर मर जाना
तुम्हे नहीं पता
गरीबी और गरीबों की बीमारियाँ,
तुम्हे नहीं पता
दवाओं के बिना बुखार में तप कर मरना
तुम तो एन्थ्रेक्स से सिर्फ एक मौत पर
दुनिया भर की प्रयोगशालाओं में तैयार करवाने लगे हो एन्टीडोट्स

तुम्हारी मीनारों के जमीन छूने की एवज में
तुमने मिटा डाला है जमीन का ए़क टुकडा ही
जहां लाखों लोग तबाह है

तुम स्वर्ग के बाशिंदों
तुम्हे क्या पता -- भूख और ठंढ से मरने से बेहतर है
हमारे लिए
तुम्हारे बमों की आंच में मरना
जब मरना ही हो आख़िरी विकल्प


चलो अच्छा है !
इस "इनफाएनाईट जस्टिस" की आड़ में
आजमा लो तुम भी अपने सारे नए ईजाद,
साफ़ कर लो अपने जंग लगते सारे हथियार
ताकि फिर कोई दुसरा अफगानिस्तान न उजडे
और ना ही कोई मुनिया रोये
अपने काबुलीवाला को याद कर-कर



Note :- कविता 5 साल पुरानी है.... पर कहानी नहीं
आप अफगानिस्तान की जगह ईराक रख ले नाईजिरिया या येरुशलम.....



Tuesday, October 20, 2009

बावजूद...


रात्रि के दुसरे पहर
सो रही होती हैं
नदी, घर, खिड़कियाँ
और श्मशान|

जागता रहता है
दुर का पुल,
शहर की ओर आती बत्तियां
और नीरवता के स्वरों में गाती
दो-चार पत्तियां|

तब
सहमी-सहमी सी एक लड़की
उलझी-गुथी उनों सी उलझी 
बुनती है
हल्दी के रंग वाले सुलझे
पीले सपने|