Thursday, January 21, 2010
उनकी मेहरारुएँ
यूनिप्रतियोगिता आयोजित करने के पीछे हिंद-युग्म का उद्देश्य जहाँ पाठकों को अच्छी कविताओं का रसास्वादन कराना होता है, वहीं नयी काव्यप्रतिभाओं का पल्लवन और उन्हे हिंद-युग्म के मंच से जोड़ना भी होता है।
नये कवियों से पाठकों का परिचय कराने की इसी शृंखला में नया नाम जुड़ा है प्रशांत प्रेम का, जिनकी कविता को दिसंबर माह की यूनिप्रतियोगिता में तीसरा स्थान मिला।
२३ जून १९७७ को जन्मे प्रशांत दृश्य-श्रव्य संचार माध्यम मे डिप्लोमा प्राप्त करके फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र से जुड़ गये। प्रशांत अलग-अलग विधाओं के द्वारा अपने विचार व्यक्त करने का प्रयास करते हैं। किंतु कविता इनके दिल की सबसे करीबी विधा है जो मूलतः स्वांतः सुखाय होती है। फ़िलहाल दिल्ली में एक कम्पनी से बतौर सहायक निर्देशक जुड़े प्रशांत अपनी फ़िल्म बनाने के लिये प्रयासरत हैं।
प्रस्तुत पुरस्कृत कविता इन्होंने बिहार की बाढ़ देख कर लौटने के बाद लिखी थी।
पुरस्कृत कविता: उनकी मेहरारुएँ
नहीं
अब नदी में कोई उबाल नहीं,
पटरी से उतर गया है पानी,
ऊँचे हाई-वे पर पनाह लिए लोग
लौटने लगे हैं घरों की तरफ
अपने-अपने बाल-बच्चे, ढोर-डंगर और मेहरारुओं के साथ।
मेहरारुओं को अभी करना है बहुत काम
सबसे पहले तो साफ़ करनी है घरों से कीचड़
परिवार बस सके ठीक से
फिर
साफ़ करना है बथान
ढोर-डंगर बँध सके ठीक-से
फिर
साफ़ करनी है दुआर
मेहमान आये तो बैठ सके ठीक-से
फिर
ठीक करना है चूल्हा-चौका
बर्तन-भांडा
कपड़े-लत्ते
खटिया-बिस्तर
मेंड़-पगडण्डी
खेत-खलिहान
.....
.....
साफ़ करनी है गली, गाँव और चौपाल
और कुआँ।
पानी के उतर जाने के बाद
कहाँ से आयेगा पीने का पानी?
सवाल,
अपने पीछे जो छोड़ गया है
पिछले तीन हज़ार सालों का बाढ़ का पानी
इसका जवाब पता है सिर्फ उनकी मेहरारुओं को।
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पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
प्रेषक : नियंत्रक । Admin
समय : 10:01 AM
उनकी मेहरारुएँ चेप्पियाँ : Dec_09, prashant prem, प्रतियोगिता की कविताएँ, प्रथम कविता
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