Tuesday, October 20, 2009

बावजूद...


रात्रि के दुसरे पहर
सो रही होती हैं
नदी, घर, खिड़कियाँ
और श्मशान|

जागता रहता है
दुर का पुल,
शहर की ओर आती बत्तियां
और नीरवता के स्वरों में गाती
दो-चार पत्तियां|

तब
सहमी-सहमी सी एक लड़की
उलझी-गुथी उनों सी उलझी 
बुनती है
हल्दी के रंग वाले सुलझे
पीले सपने|

सुबह से पहले




वैसे पलों में
जब
रेगिस्तान बन जाती है प्यास
और सम्बन्ध
चटखते पाषाण,

हम नहा उठते है
आत्मभियोग की धुप में.

सब कुछ - सब कुछ
दूर तक
बस पिघलता नजर आता है

जैसे
पिघलते है मोम.

फिर,
ज्योतिर्मय हो उठता है हमारा वजूद.

अक्सर
कंदीले पहले ज्योतिर्मय होती है
फिर पिघलती है

और हम

पहले पिघलते हैं
फिर ज्योतिर्मय होते हैं|

महज





मेरे चेहरे पर
लीपी गयी कालिख
कुर्क कर दिए गए
बिना पल्लो वाली
मेरी खिड़की के चौखट
सिर्फ (?) इसलिए
की उस भीड़ में मैंने
कह दी थी वो कविता
तुम्हारी छुअन से जन्मी थी जो !

Sunday, October 18, 2009

सरसों



अपनी हथेली पर जमा लू
तेरे विश्वाश की सरसों
खिले जिस पर
मुहब्बत के पीले फुल
महक उठे सारी जिन्दगी
जिसकी कोमल सुगंध से |

प्यार का मतलब ?





उस अंधियारे में
जब मेरे उँगलियों में
भींच गयी तुम्हारी उंगलियाँ
सारा कुछ एकांत था
हम जागते रहे, वक़्त सो गया

उस झुटपुटे में
प्रस्तर प्रतिमाओ के साये
मैंने डाली तुम्हारे गले में बाँहे
हमारे होंठ कस गए
हम पाषाण हो गए
मूर्तियाँ चल उट्ठी |

सड़क नापते हुए उस दिन
तुमने बताये थे
जिन्दगी के समीकरण
और मुझे पहली दफा पता चला
(की) मुहब्बत में कोई शर्त नहीं होती
की मुहब्बत सबसे बड़ी शर्त होती है |

Harf Tarsh

तुम छु लो मेरी सारी आग
आसमान में उड़ते सारे धुल
धूल जायेंगे आषाढ़ की पहली मेघ में




मेरा दरकता आकाश कुछ कापेंगा
और तुम भर देना
अपने होने का अहसास,




बो देना हरियाली
फटी बिवाईओं वाली धरती में,
अपनी आँखों से
मेरी आँखों में दृढ मुस्कान के साथ झाँककर |

Iss waqt sirf ....


सूर्यास्त के वक़्त
सूरज से उतरती है एक नदी
जिसका जल
तमाम नदी को कर देता है लाल
-- हम दो जने
पुल पर खड़े
उडाते हुए सिगरेट के धुएं
बाते करते हैं...
काश! कविताओ में भी बहती कोई नदी
जिसके पानी के रंग ले
हम भर देते
अपनी - अपनी महबूबाओं की माँग |

Saturday, October 17, 2009

eak najar idhar bhi..

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यादों के परींदे को फड - फङाने दो !


खामोशी की इस लकीर को धुंधला कर दो
सीने में जो चीख फंसी है उसे विदा कर दो
दिल के दरिया से उस रात का सामान गुजर जाने दो
...आज यादों के परींदे को फङ-फङाने दो




जो दुखता हुआ मंजर है तेरे तकिये पे पडा
रात उसे ख्वाब में घुल जाने दो
जो चुप्पी का खंजर लिए फिरते हो सीने में
अब तेरे कातिल के दिल में उतर जाने दो...
की कोई दस्तक की उम्मीद ना कर ऐ काफिर...
मौला ! तेरे सूफी को आज खिल -खिलाने दो....




सुबह के शगाफ़ से उतरेगी परियां
कोई गीत, कोई नज़्म, कोई मुखड़ा बनकर
ख़ुद को आवाज की रौशनी में नहाने दो
दिल को जी भर के वो नज़्म गुनगुनाने दो




हो गए सालहान गुजरे हुए बेख्वाव निगाह
अब उम्मीद को खेतों में लह - लहाने दो....
अब उम्मीद को खेतों में लह -लहाने दो...
...आज यादों के परिंदे को फड - फडाने दो...