Saturday, October 17, 2009

यादों के परींदे को फड - फङाने दो !


खामोशी की इस लकीर को धुंधला कर दो
सीने में जो चीख फंसी है उसे विदा कर दो
दिल के दरिया से उस रात का सामान गुजर जाने दो
...आज यादों के परींदे को फङ-फङाने दो




जो दुखता हुआ मंजर है तेरे तकिये पे पडा
रात उसे ख्वाब में घुल जाने दो
जो चुप्पी का खंजर लिए फिरते हो सीने में
अब तेरे कातिल के दिल में उतर जाने दो...
की कोई दस्तक की उम्मीद ना कर ऐ काफिर...
मौला ! तेरे सूफी को आज खिल -खिलाने दो....




सुबह के शगाफ़ से उतरेगी परियां
कोई गीत, कोई नज़्म, कोई मुखड़ा बनकर
ख़ुद को आवाज की रौशनी में नहाने दो
दिल को जी भर के वो नज़्म गुनगुनाने दो




हो गए सालहान गुजरे हुए बेख्वाव निगाह
अब उम्मीद को खेतों में लह - लहाने दो....
अब उम्मीद को खेतों में लह -लहाने दो...
...आज यादों के परिंदे को फड - फडाने दो...

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