Tuesday, October 20, 2009

सुबह से पहले




वैसे पलों में
जब
रेगिस्तान बन जाती है प्यास
और सम्बन्ध
चटखते पाषाण,

हम नहा उठते है
आत्मभियोग की धुप में.

सब कुछ - सब कुछ
दूर तक
बस पिघलता नजर आता है

जैसे
पिघलते है मोम.

फिर,
ज्योतिर्मय हो उठता है हमारा वजूद.

अक्सर
कंदीले पहले ज्योतिर्मय होती है
फिर पिघलती है

और हम

पहले पिघलते हैं
फिर ज्योतिर्मय होते हैं|

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