वैसे पलों में
जब
रेगिस्तान बन जाती है प्यास
और सम्बन्ध
चटखते पाषाण,
हम नहा उठते है
आत्मभियोग की धुप में.
सब कुछ - सब कुछ
दूर तक
बस पिघलता नजर आता है
जैसे
पिघलते है मोम.
फिर,
ज्योतिर्मय हो उठता है हमारा वजूद.
अक्सर
कंदीले पहले ज्योतिर्मय होती है
फिर पिघलती है
और हम
पहले पिघलते हैं
फिर ज्योतिर्मय होते हैं|
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